The Lost Bahurupiya : एक शॉर्ट फ़िल्म

The Lost Bahurupiya : एक शॉर्ट फ़िल्म


किसी भी कला का अस्तित्व उसके प्रतिस्पर्धी अथवा भिन्न शैलियों वाले कलाओं के प्रति सचेत रहकर उन कलाओं को भी साथ लेकर चलने से ही बचा रहेगा। अगर फ़िल्म वर्तमान में कला का सबसे सशक्त माध्यम है तो इस माध्यम की सबसे बड़ी जिम्मेवारी है कि फ़िल्म अपने इन अनुसांगिक कलाओं को साथ लेकर चले। फ़िल्म की अवधारणा जिन कलाओं के माध्यम से विकसित हुई, आज वे कलाएं विलुप्त हो चुके हैं या विलुप्ति की कगार पर हैं। एक फ़िल्मकार की जिम्मेदारी महज़ समाज में घटित घटना-परिघटनाओं पर केंद्रित होकर फिल्में बनाना ही नहीं है बल्कि इस आपाधापी में समाज के विलुप्त हो रहे मूल्यों और विधाओं को वर्तमान के नकली चमकीले पृष्ठ पर लाकर विवेचना कराना भी है। सुसंस्कृत और अभिजात्य होने के होड़ में सबसे ज्यादा नुकसान लोक कलाओं का हुआ। उन्हीं कलाओं में एक बहुरूपिया कला भी है जो प्रायः विलुप्त हो चुका है। इसी विलुप्त बहुरूपिया कला के प्रति चिंतित श्रीराम डाल्टन और रूपेश सहाय ने एक लघु फ़िल्म का निर्माण किया था – The Lost Bahurupiya यह फ़िल्म 61 वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में कला और संस्कृति पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार जीता है।

जिस फ़िल्म के विषय में देश के अधिकांश लोग अनभिज्ञ हैं उसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति हासिल की है। इसे इंडी फेस्ट कैलिफोर्निया में मेरिट अवार्ड मिला। इसे गोल्डन एग फिल्म फेस्टिवल मैक्सिको में भी नामांकित किया गया है।

नब्बे के दशक तक के गाँव/कस्बे में जब नीरसता घुल जाती थी और जीवन एकाकी और उबाऊ होने लगता था तो अचानक एक दोपहर कोई रोचक किरदार बच्चों के झुंड के साथ उपस्थित होता था। उसकी अदायगी और वेश-भूषा बेहद रोमांच पैदा करता। खासकर बच्चों के लिए एक अलग तरह की खुशियां और कौतूहल लौट आता था। फिर लगभग सात-आठ दिन तक गली-मुहल्ले में उस बहुरूपिये को एक नये रुप में देखने का कौतूहल बना रहता। बच्चों का दल उनके पीछे-पीछे पूरा गाँव घूमता और एक अलग ही उमंग के साथ हर नये किरदार के अदायगी की नकल भी करता। अमूमन बहुरूपिया स्थानीय नहीं होते थे और यही सबसे रोचक बात थी। बहुरूपिया कब आता था , कहाँ ठहरता था, क्या खाता था – ये एक रहस्य का विषय था। एक रोज बहुरूपिया अपने अंतिम किरदार के साथ उपस्थित होता और बच्चे बेहद गमगीन होकर उसके पीछे-पीछे चलते। बहुरूपिया एक खास अंदाज़ में अपने मेहनताने की बात रखते और लोग खुशी-खुशी बहुरूपिये को पैसे देकर विदा करते। उस अंतिम किरदार को विदा करने बच्चे गाँव के सीमाने तक पहुँच जाते और अगले साल फिर आने की गुजारिश बहुरूपिये से करते।

बहुरूपिया साल-दर-साल आता लेकिन फिर धीरे-धीरे बहुरूपिये को अंदाज़ा हुआ कि लोगों और खासकर बच्चों में उन्हें लेकर कोई उत्साह या रोमांच नहीं है। फिर बहुरूपियों ने अपना रुख बदल लिया। वे भीड़-भाड़ वाले शहर के बाज़ार में भगवान के भिन्न स्वरूपों में जाने लगे, मंदिरों के पास कभी हनुमान कभी माँ काली या कभी शंकर बनकर पैसे मांगने लगे। बहुरूपियों ने अपने कलात्मक पक्ष को गौण कर पेट भरने और जिंदा रहने का हुनर सीख लिया।

The Lost Bahurupiya लगभग आठ मिनट की एक विशिष्ट फ़िल्म है। बहुरूपिये के क्रमागत विलुप्ति की कहानी है यह फ़िल्म। फ़िल्म मूक होकर भी चीत्कार करती महसूस होती है। एक टूटे हुए शीशे में बहुरूपिया (वर्ग) अपने अस्तित्व को ढूँढने की कोशिश करता है – यहाँ से फ़िल्म के दृश्य की शुरुआत होती है । ये एक सांकेतिक फ़िल्म है जो अपने अभिव्यक्ति को दृश्यों के माध्यम से अभिव्यक्त करती है। दृश्य इतने सघन पीड़ा और गंभीर प्रश्न लिए हैं कि महज़ आठ मिनट की फ़िल्म झकझोड़ कर रख देती है। बदलते परिवेश में एक बहुरिये का एकाकीपन , उसकी पीड़ा, उसका संघर्ष और धीरे-धीरे उसके चेहरे से तमाम रंगों का उतरना – एक ऐसी वीभत्स यात्रा जिसमें कला का एक समृद्ध और गौरवशाली विधा भू-लुंठित होकर जमींदोज हो रहा है। पूरी फ़िल्म अपने आवरण में दर्शकों को घेर लेती है – जहाँ इतनी व्याकुलता भर दी गई है कि फ़िल्म के बहुरूपिया किरदार के साथ दर्शक भी चीत्कार भर रहे होते  हैं। फ़िल्मांकन और दृश्य संयोजन की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। श्रीराम डाल्टन एक पेंटर और मूर्तिकार हैं, वे एक कला की विलुप्ति का दर्द अपने अंतस में भी महसूस करते हैं। अंतिम दृश्य में समाज के बदले हुए  परिवेश में जिन आकांक्षाओं ने जगह ली है उस पर गहरा परिहास है। बनारस के गलियों और घाटों पर फ़िल्माया गया यह फ़िल्म अपने ऐतिहासिक वज़ूद के नष्ट होने का साक्षी बनारस को भी बनाना चाहता है। रंगों और उस पर बहते हुए रंगों का बहते चले जाना – अभिव्यक्त  करने का यह अद्भुत , अप्रतिम भाव है। श्रीराम डाल्टन अपनी मौलिकता के कारण सबसे अलग हैं। विषय-वस्तु के इर्द-गिर्द उनकी पकड़ इतनी कसी हुई है कि फ़िल्म को महज़ आठ मिनट में ही उन्होंने समेट दिया , ये एक असाध्य कार्य जैसा ही है। अशरफुल हक की भाव-भंगिमा और अभिनय ने बहुरूपिया के किरदार को जीवंत कर दिया है। 

प्रशांत विप्लवी 

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